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साधना को आरम्भ करने से पूर्व एक साधक को चाहिए कि वह मां भगवती की उपासना अथवा अन्य किसी भी देवी या देवता की उपासना निष्काम भाव से करे। उपासना का तात्पर्य सेवा से होता है। उपासना के तीन भेद कहे गये हैं:- कायिक अर्थात् शरीर से , वाचिक अर्थात् वाणी से और मानसिक- अर्थात् मन से। जब हम कायिक का अनुशरण करते हैं तो उसमें पाद्य, अर्घ्य, स्नान, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पंचोपचार पूजन अपने देवी देवता का किया जाता है। जब हम वाचिक का प्रयोग करते हैं तो अपने देवी देवता से सम्बन्धित स्तोत्र पाठ आदि किया जाता है अर्थात् अपने मुंह से उसकी कीर्ति का बखान करते हैं। और जब मानसिक क्रिया का अनुसरण करते हैं तो सम्बन्धित देवता का ध्यान और जप आदि किया जाता है।
शत्रोर्जिह्वां च खड्गं शर-धनु-सहितां व्यक्त-गर्वाधि-रूढां ।
‘यस्य बधार्थं क्रियते तं वृण्वन्नाच्छादयन् गच्छतीति वलगः।’
जातवेद-मुखीं देवीं, देवतां प्राण-रूपिणीम् । भजेऽहं स्तम्भनार्थं च, चिन्मयीं विश्व-रूपिणीम् ।।
स्तम्भन-बाणाय धीमहि नेत्र-त्रयाय वौषट्
मुद्गरं दक्षिणे पाशं, वामे जिह्वां च विभ्रतीम्। पीताम्बर-धरां सौम्यां, दृढ-पीन-पयोधराम् ।।
चतुर्भुजां त्रि-नयनां, पीत-वस्त्र-धरां शिवाम् ।
ॐ ह्रीं ऎं क्लीं श्री बगलानने मम रिपून नाशय नाशय ममैश्वर्याणि देहि देहि शीघ्रं मनोवान्छितं साधय साधय ह्रीं स्वाहा ।
गम्भीरां च मदोन्मत्तां, स्वर्ण-कान्ति-सम-प्रभाम् । चतुर्भुजां त्रि-नयनां, कमलासन-संस्थिताम् ।।
४५. ॐ ह्लीं श्रीं वं श्रीमङ्गलायै नमः-वामांसे (बाँएँ कन्धे में) ।
गदाहत – विपक्षकां कलित – लोल-जिह्वाञ्चलां ।
पीनोन्नत-कुचां स्निग्धां, पीतालाङ्गीं सुपेशलाम् । त्रि-लोचनांचतुर्हस्तां, गम्भीरांमद-विह्वलाम् ।।२
३१. ॐ ह्लीं श्रीं णं श्रीधात्र्यै नमः–दक्ष-पादांगुल्यग्रे (दाँएँ पैर की अँगुलियों के अग्र भाग मे)
‘ॐकारो’ मे शिरः पातु, ‘ह्लींकारो’ वदनेऽवतु । ‘बगला-मुखी’ दोर्युग्मं, here कण्ठे ‘सर्व’ सदाऽवतु।। १